शादी की बढ़ती उम्र : जरूरत या मज़बूरी, ज़िम्मेदार कौन ?


वेबवार्ता(न्यूज़ एजेंसी)/ 
रेशु वर्मा 

लखनऊ 15 जुलाई। इधर कुछ वर्षों में भारत में शादी की औसत उम्र लगातार बढ़ती जा रही है। आज़ादी के बाद बाल विवाह की कुरीति से बाहर निकले देश में आज बढ़ती उम्र में शादी कई तरह की आशंकाओं और नुकसानों को जन्म दे रही है। समय के साथ होनेवाले शारीरिक परिवर्तन, वंश आगे बढ़ाने की पारंपरिक चिंता और एक खास उम्र तक रहने वाली आर्थिक अनिश्चितता के बीच "भावनात्मक जरूरत जैसे दम तोड़ती प्रतीत हो रही है"। इन समस्यायों से जूझता युवा अपने तरीके से तालमेल के रास्ते तलाश रहे हैं। 'लिव-इन रिलेशनशिप' या 'कम्पैनियनशिप' जैसे विचार कई जटिलताओं के बावजूद नए रास्ते खोजने की जद्दोजहद का नतीजा हैं। जीवन में 'सबसे बड़ा रुपैय्या' का फंडा कॅरियर को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बना रहा है। खासतौर पर मध्यम व उच्च मध्यम वर्ग में इसने जीवन की प्राथमिकताओं को बदल दिया है। क्या ऐसा होना देश की युवा-आबादी को किसी तरह की परेशानी में डाल रहा है? या वे सही दिशा में जा रहे हैं? क्या शादी की कोई आदर्श उम्र हो सकती है? या इसपर चिंता करना ही व्यर्थ है?

इन वजहों से युवा कर रहे हैं देर से शादी :

आज कई तरह की डेटिंग वेबसाइट और एप्स का इस्तेमाल कर लोग देश ही नहीं, विदेश में भी अपनी पसंद का साथी ढूंढ़ सकते हैं। पहले साधन सीमित थे...

कॅरियर का महत्व बढ़ गया है :

युवा और साथ ही उनके माँ बाप भी अपने बच्चों के कॅरियर को लेकर महत्वाकांक्षी हो गए हैं। शादी से पहले युवा जॉब में अच्छी तरह सेटेल हो जाना चाहते हैं।

अपना फैसला खुद ले सकते हैं :

पहले शादी का फैसला बड़े-बूढ़ों के हाथों में था। युवा अब शादी से जुड़े सारे फैसले खुद लेने लगे हैं।

आर्थिक तौर पर मजबूती :

युवा और साथ ही उनके माँ बाप शादी से पहले आर्थिक आत्मनिर्भरता को तरजीह देने लगे हैं, ताकि शादी के बाद उनके बच्चों का घर अच्छे-से चले।

नई और विकसित तकनीकें :

अब तरह-तरह की तकनीक और इलाज ज्यादा उम्र में भी लोगों को माता-पिता बनने के अवसर दे रहे हैं।

कमिटमेंट से युवा डरता है :

बनते-बिगड़ते रिश्तों के कई उदाहरण सामने हैं। ऐसे में वे शादी के कमिटमेंट से डरते हैं और सही वक्त का इंतजार करते हैं।

लिव इन रिलेशन का चलन :

लिव इन रिलेशनशिप को युवा इसलिए भी अपनाते हैं कि जान सकें, साथी से शादी का उनका फैसला सही है या नहीं, और कहीं कहीं यह समयानुसार शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने का साधन बन गया है।

करियर पहले, शादी बाद में :

पहले बचपन से ही लड़कियों को ऐसी बातें सिखाई जाती थीं, जो अच्छी गृहिणी बनने के काम आ सकें। लेकिन अब तो छोटे शहरों में भी आत्मनिर्भर होना लड़कियों की प्राथमिकता है। अब वे शादी के लिए करियर नहीं बनाती हैं। अपने सपने पूरे करने के लिए वे सेल्फ डिपेंडेंट होना चाहती हैं। वे बेहतर और मनचाहे करियर के लिए संघर्ष करती हैं। वे अपने निर्णय खुद करना चाहती हैं और अपने तरीके से जीना चाहती हैं।

इसमें दो मत नहीं कि ग्लोबलाइजेशन और लिबरलाइजेशन ने समाज की सोच को काफी बदला है। अब मध्यवर्ग में लड़का-लड़की में फर्क करने की मानसिकता काफी कम हुई है। अब लड़कियों को भी लड़कों के ही बराबर सुविधाएं और प्रोत्साहन मिलने लगा है जिससे वे बेहतर शिक्षा और रोजगार हासिल कर रही हैं। अब उनमें यह भाव खत्म हो गया है कि चूंकि वे लड़की हैं इसलिए कुछ चीजों में कम्प्रोमाइज कर लें। अब वे लड़कों से सीधे-सीधे प्रतियोगिता में उतर गई हैं। वे खुद को उनसे कमतर नहीं मानतीं। इस कारण विवाह संबंधी उनकी भी मानसिकता बदली है। अब अपने लाइफ पार्टनर को लेकर उनकी अपेक्षाएं भी पहले से काफी बढ़ गई हैं। इस मामले में भी वे समझौता नहीं करना चाहतीं भले ही उनकी शादी में देर क्यों न हो या उन्हें अविवाहित ही क्यों न रहना पड़े।

भारत में थर्टी प्लस की सिंगल वुमन को पुरानी पीढ़ी बड़े आश्चर्य और कुछ हद तक संदेह की नजरों से भी देखती है। ऐसी लड़कियों के बारे में कहा जाता है कि वे जिम्मेदारियों से बचना चाहती हैं इसलिए विवाह से कतराती हैं। पर ऐसा कहने वाले यह नहीं समझते कि जो लड़की अपने दम पर आत्मनिर्भर बनती है, जो घर और ऑफिस पहले से ही संभल रही होती हैं तो फिर वो कौन सी जिम्मेदारी है, जिससे वो बचना चाहेगी? हमारे देश में शिक्षा और कैरियर के लिए एक उम्र पार कर चुकी लड़कियों के लिए योग्य वर खोज पाना ढेरी खीर है। क्योंकि 30 की उम्र में अविवाहित लड़कियों को इस नजर से देखा जाता है कि जैसे उनमे कोई कमी हो। ऐसे में अक्सर अपने करीबी लोगों से निराश लड़की शादी का निर्णय अपने घर वालों पर छोड़ देती है।

"और अच्छा रिश्ता ढूंढने का"

    अधिकांश जगह माता पिता की गैर ज़िम्मेदाराना सोच ने भी विवाह की उम्र को 30 के ऊपर कर दिया है, इससे भले ही उनके बच्चों का जीवन बरबाद न हो जाये, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं रहता। आजकल एक फैशन चल गया है "और अच्छा रिश्ता ढूंढने का", और इस तरह ""और अच्छा रिश्ता ढूंढने" में उनके बच्चों की उम्र 30 पार या आजीवन कुंवारापन की ओर बढ़ने लगती है, क्यूंकि अगर रिश्ता मिल गया तो ठीक अन्यथा फिर भगवान ही मालिक। परन्तु तब समय माता पिता के हाथों से भी निकल जाता है की वे अपनी बेटी - बेटे के अनुसार अच्छा रिश्ता या उनके ख्वाबों के अनुसार रिश्ता कहाँ से लाये?






रेशु वर्मा