वेब वार्ता(न्यूज़ एजेंसी)/अजय कुमार वर्मा
लखनऊ 12 अगस्त।
कितना हँसोड़ रहा होगा वह आदमी,
जिसने एक ऊँट के साथ।
मजाक किया होगा,
उसके मुँह में जीरे का एक दाना रखकर।।
सचमुच बड़ा फक्कड़ रहा होगा वह,
बड़ा ही मस्तमौला।
जिसने छछूंदर के सिर पर,
चमेली के तेल मले जाने की,
मजेदार बात सोची होगी।।
जरा कहावतों के जन्म के बारे में सोचें -
किसने कहा होगा पहली बार,
कि अधजल गगरी छलकत जाए।
आए थे हरिभजन को,
ओटन लगे कपास।
वे हमारे पूर्वज थे,
जिन्हें कवि नहीं बनना था।
नहीं होना था उन्हें प्रसिद्ध,
इसलिए कहावतों में उन्होंने,
अपना नाम नहीं जोड़ा।।
वे जिंदगी के कटु आलोचक रहे होंगे,
गुलमोहर की लाल हंसी हंसने वाले।
समय को गेंद की तरह उछालने वाले,
अपनी नींद और अपने आराम के बारे में।
खुद फैसले लेने वाले,
यारबाश लोग रहे होंगे वे।।
उनमें से कोई तेज-तर्रार भड़भूंजा रहा होगा,
जिसने पहली बार महसूस किया होगा कि।
अकेला चना भाँड़ नहीं फोड़ता,
कोई उत्साही मल्लाह रहा होगा,
जिसने निष्कर्ष निकाला-
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।।
क्या तुम उन अनाम पूर्वजों के,
साहस की तपिश,
महसूस कर सकते हो।।
जरा सोचो,
उस दिन क्या हुआ होगा,
जब उन्हीं में से किसी ने।
एक ढोंगी की ओर उँगली उठाकर,
कहा होगा-मुँह में राम बगल में छुरी।।
उन अनाम पूर्वजों ने,
डरना तो शायद,
सीखा ही नहीं होगा।।
जब मौत भी उनके सिरहाने,
आ खड़ी होती होगी।
तो वे उसे चिढ़ाते होंगे,
रँगासियार कहकर।।
अब नहीं दिखते,
वैसे मस्तमौला, फक्कड़ और साहसी लोग।
नहीं रहे जिंदगी के कटु आलोचक,
और इसीलिए दम तोड़ रही है कहावतें।।
तुम्हें अपनी भाषा की,
कितनी कहावतें याद हैं।
यह समझदार लोगों का दौर है,
यह चालाक कवियों का दौर है,
यह प्रायोजित शब्दों का दौर है।।
काश इस दौर के बारे में,
मैं एक सटीक कहावत कह पाता।। - - अजय कुमार(वरिष्ठ पत्रकार)