लखनऊ में करोड़ों रूपये की सरकारी भूमि पर अवैध कब्ज़ा - पार्ट २


सीतापुर रोड पर खदरी व भिटौली क्रॉसिंग के पास अवैध कब्ज़े 


वेबवार्ता (न्यूज़ एजेंसी)/अजय कुमार वर्मा 
लखनऊ 11 अगस्त। वर्षों से सूबे की राजधानी लखनऊ में करोड़ों रूपये की सरकारी भूमि पर कब्ज़ा हो चुका है और जानकारी होने के बावजूद विकास प्राधिकरण, नगर निगम, जिला एवम पुलिस प्रशासन इन कब्ज़ों पर पता नहीं क्यों चुप्पी साधे है ? हमने कुछ दिन पहले भी इसके बारे में लिख चुके है। 



       लखनऊ में अरबों-खरबों मूल्‍य की बेशकीमती खाली पड़ी सरकारी भूमि का मतलब होता है कि   पुलिस और प्रशासन की आंख में धूल झौंकते हुए धड़ल्‍ले के साथ, ताल ठोंक कर अवैध कब्ज़ा। ताज्जुब है कि लखनऊ विकास प्राधिकरण, नगर निगम, जिला एवम पुलिस प्रशासन को इन कब्ज़ों का पता नहीं चलता या जानबूझ कर क्यों चुप्पी साधे है? पिछली बार हमने नबीउल्लाह रोड पर सरकारी भूमि पर कई बास बल्ली की दुकानों द्वारा किये गए कब्ज़े के बारे में लिखा था। 
       जानकारी करने के दौरान संजय गुप्ता अध्यक्ष आदर्श व्यापार मंडल लखनऊ और रिज़वान अहमद सिद्दीकी पूर्व अध्यक्ष आदर्श बांस बल्ली व्यापार मंडल लखनऊ पहले ही कह चुके है कि 2003 में आदर्श व्यापार मंडल के बैनर तले 26 दुकानदारों जो कि नबी उल्लाह रोड बास मंडी के विस्थापित “वैध” दूकानदार थे, को शासन से बातचीत कर केशव नगर व मड़ियांव सीतापुर रोड़ पर बसाया गया था।
 
क्या है यह गोरखधंधा 


     मिली जानकारी के मुताबिक दरअसल बांस घास की प्रजाति में आता है। जिस पर किसी प्रकार का कोई टैक्स नहीं होता है। जंगलों में बांस के पेड़ होते हैं जिनका वैध/अवैध रूप से पातन होता है। जिसमें वन विभाग और स्थानीय पुलिस की मिलीभगत होती है। यह बांस लखनऊ की अवैध मंडियों में खपा दिया जाता है। इतना ही नहीं जो इस धंधे में शामिल हैं, बड़े लंबे हाथ हैं, नीचे से ऊपर तक वन विभाग और पुलिस के लोग इनसे सेट होते हैं। टैक्स विभाग इनकी तरफ झांकने नहीं आता है। कभी कभार कोई   तेज़ तर्रार इंस्पेक्टर इनसे जमीन के कागज़ मांग लेता है तब यह लोग अपनी अपनी दुकाने कुछ समय के लिए हटा लेते हैं।
       बताया जाता है कि एक बांस खर्चा मिलाकर जब लखनऊ आता है तो वह रू०- 60/70 का हो जाता है और उसे दुगने कीमत पर टुकड़ों में भेज दिया जाता है। इस पर ना कोई टैक्स देना है ना किसी को हिसाब सरकारी भूमि कब्जे की। इसका किराया भी नहीं देना है। कभी कभार थाने से मुंशी जी आ भी गए  तो चाय पिलाई, सलाम किया और लिफाफा पकड़ा दिया बस खेल खत्म। कई तो अब करोड़पति हो चुके हैं, जिनके पास वोटर आधार कार्ड है। इनमें से कई ने अपने आवास भी सरकारी जमीन पर कब्ज़ा कर बनाये है। दुकान तो क्या मकान की भी रजिस्ट्री नहीं मिलेगी।


बांस की किस्में 
      एक बांस लगभग 24 फुट लंबा होता है। जिस को साफ और काट कर फीट के हिसाब से बेच दिया  जाता है। बांस के व्यापारी दो तरह के होते हैं, एक वह जो सिर्फ बांस बेचने का कार्य करते है। बांस का इस्तेमाल कई चीजों में होता है। मसलन नाली साफ करने की फंटी से लेकर फैंसी झोपड़ी बनाने व पुलिस बैरिकेडिंग करने के लिए बांस का इस्तेमाल करती है। बांस के टट्टर बनते हैं, सीढ़ी बनती है। दूसरे वह लोग हैं जो बांस और बल्ली किराए पर देते हैं, जो मकान और आवासीय कालोनियों में काम में लाए जाते हैं ।


असमिया बांस
       2016 के आस पास असमिया बांस लखनऊ की अवैध बांस मंडी पहुंचा जो देसी बांस से फर्क था । जो देसी बांस से सस्ता था। दुगना नफा था। यह बांस असोम बिहार की सीमा को पर कर लखनऊ लाया जाता है। इस बांस को लेकर इन राज्यों की सरकारें कितना सतर्क हैं, कैसे यह बांस लखनऊ आ रहा है, यह शोध का विषय है।


देसी बांस
       देसी बांस की कई किस्में होती हैं जैसे कटिया, चाऊ, ढारू, चिकनवा ढारू। बासों को काट कर छिल कर आग में सेंक कर देखने में खूबसूसरत कर दिया जाता था। इन के कारीगर हुआ करते थे जैसे जरार, गंगा, इमामी आदि। यह बांस पलंग मच्छर दानी, लाठी, और टेंट के लिए प्रयोग किये जाते थे। 2003 में जब नबीउल्लाह रोड से बांस मंडी का विस्थापन हुआ। तब इन कारीगरों के भविष्य पर ताला लग गया व पलंग मच्छर दानी, लाठी और टेंट के लिए प्रयोग बंद हो गया।


बांस का खेल
        2004 के बाद श्रावस्ती जिले से कुछ लोग लखनऊ आये जो बांस के टट्टर बंनाने की कला में निपुण थे। जो इस कला में निपुण नहीं थे व दर्जी, टैम्पो चलाने का काम करने लगे। टट्टर सीढ़ी बंनाने वाले कारीगर अनपढ़ थे, पर जल्द ही उनकी समझ में आ गया की टट्टर सीढ़ी बंनाने से बेहतर है, की खुद का कारोबार करो। जरूरत थी जमीन की सो लखनऊ में जमीन की क्या कमी थी ,रेलवे ,नजूल ,नगर निगम ,लखनऊ विकास प्राधिकरण ,आवास विकास सर्विस लेन हाज़िर थी। बोलेगा अगर कोई तो सिर्फ इलाकाई पुलिस जिसे सेट होने में देर नहीं लगती है। फूस और टट्टर के इस्तेमाल से झोपडी तैयार। बिजली वाले विभाग की मेहरबानी से बिजली भी आ गयी। कल जो दिहाड़ी पर मजदूरी करते थे वो अब मालिक बन बैठे थे। लखनऊ के बड़े बांस कारोबारी इनसे डील करने लगे कुछ ने बांस का कारोबार बंद कर दिया। वे बल्ली का कारोबार करने लगे। अब लखनऊ में कितनी बांस की दुकाने हैं यह किसी को नहीं पता। कुकुरमुत्ते की तरह इनकी दुकानें खुल गयीं। 26 दुकानों की जब एल0डी0ए0 ने रजिस्ट्री की तो लखनऊ में सभी प्रकार की सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा करने का खेल शुरू हो गया कि एक दिन इन अवैध कब्ज़े को वैध कर दिया जायेगा। 90 प्रतिशत के आसपास इस कारोबार को कर रहे लोगों के पास किसी भी प्रकार का कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है।


      अब प्रश्न यह उठता है की योगीराज में सरकार इन अवैध कब्ज़ों से ये सरकारी ज़मीन खाली करवा पाती है या नहीं ?